31 मार्च 2018

आटे-दाल का भाव

आटे के वास्ते हैं हविस मुल्क-ओ-माल की
आटा जो पालकी है तो है दाल नाल की
आटे ही दाल से है दुरुस्ती ये हाल की
इसे ही सबकी ख़ूबी जो है हाल क़ाल की
सब छोड़ो बात तूति-ओ-पिदड़ी व लाल की
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो आटे-दाल की

इस आटे-दाल ही का जो आलम में है ज़हूर
इससे ही मुँहप नूर है और पेट में सरूर
इससे ही आके चढ़ता है चेहरे पे सबके नूर
शाह-ओ-गदा अमीर इसी के हैं सब मजूर
सब छोड़ो बात तूति-ओ-पिदड़ी व लाल की
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो आटे-दाल की

क़ुमरी ने क्या हुआ जो कहा "हक़्क़े-सर्रहू"
और फ़ाख़्ता भी बैठके कहती है "क़हक़हू"
वो खेल खेलो जिससे हो तुम जग में सुर्ख़रू
सुनते हो ए अज़ीज़ो इसी से है आबरू
सब छोड़ो बात तूति-ओ-पिदड़ी व लाल की
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो आटे-दाल की …

---नज़ीर अकबराबादी

24 मार्च 2018

एक भाषा हुआ करती है

एक भाषा हुआ करती है
जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूं `आंसू´ से मिलता जुलता कोई शब्द
हर बार बहने लगती है रक्त की धार

एक भाषा है जिसे बोलते वैज्ञानिक और समाजविद और तीसरे दर्जे के जोकर
और हमारे समय की सम्मानित वेश्याएं और क्रांतिकारी सब शर्माते हैं
जिसके व्याकरण और हिज्जों की भयावह भूलें ही
कुलशील, वर्ग और नस्ल की श्रेष्ठता प्रमाणित करती हैं

बहुत अधिक बोली-लिखी, सुनी-पढ़ी जाती,
गाती-बजाती एक बहुत कमाऊ और बिकाऊ बड़ी भाषा
दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर, सबसे गरीब और सबसे खूंख़ार,
सबसे काहिल और सबसे थके-लुटे लोगों की भाषा,
अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़ या एक अरब भुक्खड़ों, नंगों और ग़रीब-लफंगों की जनसंख्या की भाषा,
वह भाषा जिसे वक़्त ज़रूरत तस्कर, हत्यारे, नेता, दलाल, अफसर, भंड़ुए, रंडियां और कुछ जुनूनी
नौजवान भी बोला करते हैं

वह भाषा जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है
आत्मघात करती हैं प्रतिभाएं
`ईश्वर´ कहते ही आने लगती है जिसमें अक्सर बारूद की गंध

जिसमें पान की पीक है, बीड़ी का धुआं, तम्बाकू का झार,
जिसमें सबसे ज्यादा छपते हैं दो कौड़ी के मंहगे लेकिन सबसे ज्यादा लोकप्रिय अखबार
सिफ़त मगर यह कि इसी में चलता है कैडबरीज, सांडे का तेल, सुजूकी, पिजा, आटा-दाल और स्वामी

जी और हाई साहित्य और सिनेमा और राजनीति का सारा बाज़ार

एक हौलनाक विभाजक रेखा के नीचे जीने वाले सत्तर करोड़ से ज्यादा लोगों के
आंसू और पसीने और खून में लिथड़ी एक भाषा
पिछली सदी का चिथड़ा हो चुका डाकिया अभी भी जिसमें बांटता है
सभ्यता के इतिहास की सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक चिटि्ठयां

वह भाषा जिसमें नौकरी की तलाश में भटकते हैं भूखे दरवेश
और एक किसी दिन चोरी या दंगे के जुर्म में गिरफ़्तार कर लिए जाते हैं
जिसकी लिपियां स्वीकार करने से इंकार करता है इस दुनिया का समूचा सूचना संजाल
आत्मा के सबसे उत्पीड़ित और विकल हिस्से में जहां जन्म लेते हैं शब्द
और किसी मलिन बस्ती के अथाह गूंगे कुएं में डूब जाते हैं चुपचाप
अतीत की किसी कंदरा से एक अज्ञात सूक्ति को अपनी व्याकुल थरथराहट में थामे लौटता है कोई जीनियस

और घोषित हो जाता है सार्वजनिक तौर पर पागल
नष्ट हो जाती है किसी विलक्षण गणितज्ञ की स्मृति
नक्षत्रों को शताब्दियों से निहारता कोई महान खगोलविद भविष्य भर के लिए अंधा हो जाता है
सिर्फ हमारी नींद में सुनाई देती रहती है उसकी अनंत बड़बड़ाहट...मंगल..शुक्र.. बृहस्पति...सप्त-ॠषि..अरुंधति...ध्रुव..
हम स्वप्न में डरे हुए देखते हैं टूटते उल्का-पिंडों की तरह
उस भाषा के अंतरिक्ष से
लुप्त होते चले जाते हैं एक-एक कर सारे नक्षत्र

भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को
अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसमें दण्डनीय है विज्ञान और अर्थशास्त्र और शासन-सत्ता से संबधित विमर्श
प्रतिबंधित हैं जिसमें ज्ञान और सूचना की प्रणालियां
वर्जित हैं विचार

वह भाषा जिसमें की गयी प्रार्थना तक
घोषित कर दी जाती है सांप्रदायिक
वही भाषा जिसमें किसी जिद में अब भी करता है तप कभी-कभी कोई शम्बूक
और उसे निशाने की जद में ले आती है हर तरह की सत्ता की ब्राह्मण-बंदूक

भाषा जिसमें उड़ते हैं वायुयानों में चापलूस
शाल ओढ़ते हैं मसखरे, चाकर टांगते हैं तमगे
जिस भाषा के अंधकार में चमकते हैं किसी अफसर या हुक्काम या किसी पंडे के सफेद दांत और
तमाम मठों पर नियुक्त होते जाते हैं बर्बर बुलडॉग

अपनी देह और आत्मा के घावों को और तो और अपने बच्चों और पत्नी तक से छुपाता
राजधानी में कोई कवि जिस भाषा के अंधकार में
दिन भर के अपमान और थोड़े से अचार के साथ
खाता है पिछले रोज की बची हुई रोटियां
और मृत्यु के बाद पारिश्रमिक भेजने वाले किसी राष्ट्रीय अखबार या मुनाफाखोर प्रकाशक के लिए
तैयार करता है एक और नयी पांडुलिपि

यह वही भाषा है जिसको इस मुल्क में हर बार कोई शरणार्थी, कोई तिजारती, कोई फिरंग
अटपटे लहजे में बोलता और जिसके व्याकरण को रौंदता
तालियों की गड़गड़ाहट के साथ दाखिल होता है इतिहास में
और बाहर सुनाई देता रहता है वर्षो तक आर्तनाद

सुनो दायोनीसियस, कान खोल कर सुनो
यह सच है कि तुम विजेता हो फिलहाल, एक अपराजेय हत्यारे
हर छठे मिनट पर तुम काट देते हो इस भाषा को बोलने वाली एक और जीभ
तुम फिलहाल मालिक हो कटी हुई जीभों, गूंगे गुलामों और दोगले एजेंटों के
विराट संग्रहालय के
तुम स्वामी हो अंतरिक्ष में तैरते कृत्रिम उपग्रहों, ध्वनि तरंगों,
संस्कृतियों और सूचनाओं
हथियारों और सरकारों के

यह सच है

लेकिन देखो,
हर पांचवें सेकंड पर इसी पृथ्वी पर जन्म लेता है एक और बच्चा
और इसी भाषा में भरता है किलकारी

और
कहता है - `मां ´ !

--- उदय प्रकाश

18 मार्च 2018

In the Village

I

I came up out of the subway and there were
people standing on the steps as if they knew
something I didn't. This was in the Cold War,
and nuclear fallout. I looked and the whole avenue
was empty, I mean utterly, and I thought,
The birds have abandoned our cities and the plague
of silence multiplies through their arteries, they fought
the war and they lost and there's nothing subtle or vague
in this horrifying vacuum that is New York. I caught
the blare of a loudspeaker repeatedly warning
the last few people, maybe strolling lovers in their walk,
that the world was about to end that morning
on Sixth or Seventh Avenue with no people going to work
in that uncontradicted, horrifying perspective.
It was no way to die, but it's also no way to live.
Well, if we burnt, it was at least New York.

II

Everybody in New York is in a sitcom.
I'm in a Latin American novel, one
in which an egret-haired viejo shakes with some
invisible sorrow, some obscene affliction,
and chronicles it secretly, till it shows in his face,
the parenthetical wrinkles confirming his fiction
to his deep embarrassment. Look, it's
just the old story of a heart that won't call it quits
whatever the odds, quixotic. It's just one that'll
break nobody's heart, even if the grizzled colonel
pitches from his steed in a cavalry charge, in a battle
that won't make him a statue. It is the hell
of ordinary, unrequited love. Watch these egrets
trudging the lawn in a dishevelled troop, white banners
trailing forlornly; they are the bleached regrets
of an old man's memoirs, printed stanzas.
showing their hinged wings like wide open secrets.

III

Who has removed the typewriter from my desk,
so that I am a musician without his piano
with emptiness ahead as clear and grotesque
as another spring? My veins bud, and I am so
full of poems, a wastebasket of black wire.
The notes outside are visible; sparrows will
line antennae like staves, the way springs were,
but the roofs are cold and the great grey river
where a liner glides, huge as a winter hill,
moves imperceptibly like the accumulating
years. I have no reason to forgive her
for what I brought on myself. I am past hating,
past the longing for Italy where blowing snow
absolves and whitens a kneeling mountain range
outside Milan. Through glass, I am waiting
for the sound of a bird to unhinge the beginning
of spring, but my hands, my work, feel strange
without the rusty music of my machine. No words
for the Arctic liner moving down the Hudson, for the mange
of old snow moulting from the roofs. No poems. No birds.

IV

The Sweet Life Café

If I fall into a grizzled stillness
sometimes, over the red-chequered tablecloth
outdoors of the Sweet Life Café, when the noise
of Sunday traffic in the Village is soft as a moth
working in storage, it is because of age
which I rarely admit to, or, honestly, even think of.
I have kept the same furies, though my domestic rage
is illogical, diabetic, with no lessening of love
though my hand trembles wildly, but not over this page.
My lust is in great health, but, if it happens
that all my towers shrivel to dribbling sand,
joy will still bend the cane-reeds with my pen's
elation on the road to Vieuxfort with fever-grass
white in the sun, and, as for the sea breaking
in the gap at Praslin, they add up to the grace
I have known and which death will be taking
from my hand on this chequered tablecloth in this good place.

--- Derek Walcott

15 मार्च 2018

बहार आई तो

बहार आई तो जैसे यक-बार
लौट आए हैं फिर अदम से
वो ख़्वाब सारे शबाब सारे
जो तेरे होंटों पे मर-मिटे थे
जो मिट के हर बार फिर जिए थे
निखर गए हैं गुलाब सारे
जो तेरी यादों से मुश्कबू हैं
जो तेरे उश्शाक़ का लहू हैं
उबल पड़े हैं अज़ाब सारे
मलाल-ए-अहवाल-ए-दोस्ताँ भी
ख़ुमार-ए-आग़ोश-ए-मह-वशां भी
ग़ुबार-ए-ख़ातिर के बाब सारे
तिरे हमारे
सवाल सारे जवाब सारे
बहार आई तो खुल गए हैं
नए सिरे से हिसाब सारे

--- Faiz Ahmad Faiz

13 मार्च 2018

शब्द

मेरे शब्द जब गेहूँ थे
मैं था धरती.
मेरे शब्द जब रोष थे
मैं था तूफ़ान.
मेरे शब्द जब चट्टान थे
मैं था नदी.
जब मेरे शब्द बन गए शहद
मक्खियों ने मेरे होंठ ढँक लिए.

---महमूद दरवेश
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद