21 मई 2010

कभी कभी

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है

के ज़िंदगी तिरी जुल्फों के नर्म सायों में
गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी जीस्त का मुकद्दर है
तेरी नज़र कि शुआयों में खो भी सकती थी

अजब ना था कि मैं बेगाना-ऐ-आलम रह कर
तिरी जमाल कि रानाइयों में खो रहता
तिरा गुदाज़ बदन तेरी नीमबाज़ आंखें
इन्हीं हसीन फसानों में महव हो रहता

पुकारती मुझे जब तल्खियां ज़माने की
तिरे लबों से हलावत के घूँट पी लेता
हयात चीखती फिरती बरहना सर और मैं
घनेरी ज़ुल्फ के साए में छुप के जी लेता

मगर ये हो ना सका और अब ये आलम है
के तू नहीं, तिरा गम ,तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे
इसे किसी के सहारे कि आरजू भी नहीं

ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रह गुजारों से
मुहीब साए मेरी सम्त बढ़ते आते हैं
हयात-ओ-मौत के पुरहौल खारज़ारों से

ना कोई जादा, ना मंजिल, ना रोशनी का सुराग
भटक रही है खलायों में जिंदगी मेरी
इन्हीं खलायों में रह जाऊंगा कभी खोकर
मैं जानता हूँ मेरी हमनफस मगर यूंही

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है

---साहिर लुध्यानवी

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